प्रश्न – मनुष्य कितने प्रकार के कर्मों को करता हैं अर्थात् कर्मों के भेद कितने हैं?
उत्तर- वैसे तो मनुष्य अपने जीवनकाल में शरीर, इन्द्रिय तथा मन से हजारों, लाखों प्रकार के कर्म करता है जिनकी गणना करनी संभव नहीं। पुनरपि अनेक दृष्टिकोण से ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार से कर्मों के भेद किये हैं, जिनका परिगणन करके संक्षेप में हम यहाँ पर दर्शा रहे हैं-
१. साधनों के आधार पर कर्म के तीन भेद है-
(१) मानसिक
(२) वाचनिक
(३) शारीरिक।
२. साधनों के आधार पर किये गए तीन भेदों के भी पुनः शुभ-अशुभ प्रकार बताकर 20 भेद बताये गए हैं। जिनका विवरण निम्न प्रकार से है-
शरीर से वाणी से मन से
शुभ कर्म
१ रक्षा ४ सत्य ८ दया
२ दान ५ मधुर ९ अस्पृहा
३ सेवा ६ हितकर १0 नास्तिकता
७ स्वाध्याय करना
अशुभ कर्म
१ हिंसा ४ असत्य ८ द्रोह
२ चोरी ५ कठोर ९ स्पृहा
३ व्यभिचार ६ अहितकर १0 नास्तिकता
७ व्यर्थ बोलना
-न्याय दर्शन १//१//२
मानसिक कर्मों में से तीन मुख्य अधर्म हैं- परद्रव्यहरण अथवा चोरी का विचार, लोगों का बुरा चिन्तन करना, मन में द्वेष करना ईर्ष्या करना तथा मिथ्या निश्चय करना।
-मनु-स्मृति १२//५
कठोर भाषण, झूठ बोलना, चुगली करना तथा जानबूझ कर (लांछन या बुराई बनाकर) बात को उड़ाना ये चार वाचनिक अधर्म हैं।
-मनु-स्मृति १२//६
शारीरिक अधर्म तीन हैं- चोरी, हिंसा अर्थात् सब प्रकार के क्रूर तथा व्यभिचार आदि कर्म करना।
-मनु-स्मृति १२//७
३. योग दर्शन के अनुसार पाप पुण्य के आधार पर कर्म के चार भेद बताए गए हैं-
(१) शुक्लकर्म- अर्थात् शुभ कर्म-सुख प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म- यथा दान, सेवा आदि।
(२) कृष्णकर्म- अर्थात् अशुभ कर्म, दुख प्राप्त करानेवाले पाप कर्म- यथा चोरी, हिंसा आदि।
(३) शुक्लकृष्णकर्म- शुभ तथा अशुभ दोनों से मिले हुवे-कुछ सुख तथा कुछ दुख दोनों को प्राप्त कराने वाले मिश्रित कर्म- यथा खेती करना, चोरी करके दान देना, भोजन बनाना आदि। इन कर्मों से किसी को तो सुख होता है और कुछ क्षुद्र जन्तुओं कीड़े-मकोड़ों की हिंसा भी होती है।
(४) अशुक्लअकृष्णकर्म- अर्थात् निष्काम कर्म जो लौकिक सुख को प्राप्त कराने वाले न होकर ईश्वर की प्राप्ति या मुक्ति को प्राप्त कराने वाले होते हैं। इनमें केवल शुक्ल कर्म ही आते हैं।
४. फल के आधार पर कर्म के तीन भेद हैं-
(१) संचित- पिछले जन्मों से लेकर अब तक किये जा चुके कर्म- जिनका फल मिलना अभी शेष है।
(२) प्रारब्ध- जिन कर्मों का फल मिलना प्रारम्भ हो गया है या मिल रहे है वे प्रारब्ध कर्म हैं। यथा, शरीर का मिलना।
(३) क्रियमाण- जो कर्म वर्तमान में किये जा रहे हैं, उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं।
५ कर्त्ता के आधार पर कर्म के तीन भेद-
(१) कृत कर्म- ऐसे कर्म जिनका कर्त्ता स्वयं जीव ही होता है, वे ‘कृत’ कर्म कहलाते हैं।
(२) कारित कर्म-जिन कर्मों को जीव साक्षात् स्वयं न करके अन्यों से करवाता है या करने को प्रेरणा देता है, वे ‘कारित’ कर्म कहलाते हैं।
(३) अनुमोदित कर्म- जिन कर्मों को जीव साक्षात् स्वयं न करता है, न कराने के लिए किसी को प्रेरित अर्थात् आदेश करता है, किन्तु स्वतंत्र रूप से किसी के किये गये कर्म का अनुमोदन व समर्थन करता है वे कर्म अनुमोदित कर्म कहलाते हैं।
६. गीता में कर्म के तीन भेद-
(१) कर्म- अच्छे कर्म
(२) विकर्म- बुरे कर्म
(३) अकर्म- निष्काम कर्म
७. वासना के आधार पर कर्म के दो भेद-
(१) सकाम कर्म- जो कर्म राग द्वेष से युक्त होकर किये जाते हैं, उनसे वासना संस्कार बनते हैं।
(२) निष्काम कर्म- जो कर्म राग द्वेष से रहित होकर किये जाते हैं, वे वासना उत्पन्न नहीं करते हैं।