मन
सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि मन बहुत चंचल है, यह एक जगह टिकता नहीं और यह अपनी इच्छा से हमें भिन्न-भिन्न वस्तुओं की तरफ धकेलता रहता है। मन को चलाना व रोकना सीखने के लिए सबसे पहले आइये हम जानते हैं कि आखिर मन है क्या और इसका स्वभाव क्या है?
मन क्या है?- मन जड़ वस्तु है। जड़ वस्तुओं में स्वयं इच्छा करने की शक्ति नहीं होती। केवल चेतन वस्तुएं ही इच्छा कर सकती हैं। चेतन होने के कारण इच्छा तो हमारा आत्मा करता है, परन्तु वह इच्छा मन में प्रकट होती है, जिस कारण हमें लगता है कि वास्तव में इच्छा करने वाला हमारा मन है। दूसरों से की जाने वाली आशाएं भी हममें इच्छाएं पैदा करती हैं। जड़ होने के कारण हमारा मन स्वयं कोई प्रयत्न भी नहीं कर सकता। जड़ वस्तुएं स्वयं तो क्रिया नहीं करती, परन्तु वे चेतन वस्तुओं के हाथों क्रिया कर सकती हैं, जैसे की कलम, कार आदि चलाना। कलम अथवा पैन स्वयं तो लिख नहीं सकता, परन्तु किसी चेतन के हाथ में आने से उसमें लिखने का सामर्थ्य पैदा हो जाता है।
मन एक विशेष प्रयोजन से आत्मा के साथ संयुक्त किया गया है। वह प्रयोजन है- आत्मा को सुख प्राप्त कराना। हर वह वस्तु, जिससे हमारी आत्मा को सुख मिलता है हमारे मन में अंकित हो जाती है और हमारा मन उन वस्तुओं को प्राप्त करने की बार-बार चेष्टा करता है, ताकि हमें सुख की प्राप्ति हो सके। सुख प्राप्त करने की स्वाभाविक इच्छा हमारी आत्मा की है, नाकि हमारे मन की। हमारा प्रयत्न की गई इच्छा की प्राप्ति के लिए ही होता है।
संसार की अन्य वस्तुओं की तरह हमारा मन भी प्रकृति के तीन तत्वों- सत्व, स्जस और तमस से बना है। वैसे तो मन में सत्व तत्व की प्रधानता है, परन्तु फिर भी यह गलत कामों में इस लिए प्रवृत हो जाता है, क्योंकि क्लेशों की विद्यमानता के कारण हमारी आत्मा गलत इच्छाएँ उठा लेती है, जो मन के रजस तत्व से सहयोग पाकर बलवती हो जातीं हैं और हम गलत काम कर बैठते हैं।
जो लोग मन को जड़ नहीं, बल्कि अन्तिम कार्य करने वाला मानते हैं, वे ही कहते हैं कि हमारा मन मानता नहीं। कभी किसी व्यक्ति ने यह नहीं कहा होगा कि हमारी कार मानती नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि हर कोई यह समझता है कि कार जड़ है और उसके गलत या ठीक चलाने के पीछे कोई चेतन वस्तु जिम्मेदार है। कार की भाँति मन को भी जड़ स्वीकार कर लेने पर हमारी बहुत सी शंकाओं का समाधान हो जाता है। इस बिन्दु को अच्छे से हृदयङ्गम कर लेने पर हम अपने मन को चलाने व रोकने में अच्छी प्रगति कर सकते हैं।
मन का चलना- हमारी आत्मा मन के माध्यम से ही प्रयत्न करती है। जब हमारा मन हमारी आत्मा द्वारा की गई इच्छा के अनुरूप भिन्न-भिन्न विचार उठाता है, तो उसी को मन का चलना कह दिया जाता है। मन को अपने नियंत्रण में करने के लिए हमें अपनी इच्छाओं पर और दूसरों से की जाने वाली आशाओं पर नियंत्रण करना होगा। वैसे तो हमारा मन बहुत जगह अर्थात घूमने-फिरने, टेलीविजन देखने, फिल्में देखने, मोबाईल आदि में खूब लगता है, परन्तु यह ईश्वर का चिन्तन करने में नहीं लगता।
मन को अपनी इच्छानुसार चलाना- यदि, हमने अपनी इच्छाओं को सीमित कर लिया, तो हमारा मन भी उन्हीं इच्छाओं को हमें प्राप्त कराने के लिए अग्रसर होगा और इस तरह हमारा मन ज्यादा जगह नहीं जाएगा। इसी को मन का चलाना कहा जाता है।
यदि, हम चाहते है कि हमारा मन ईश्वर के चिन्तन में लगे, तो इसके लिए हमें अपने मन को यकीन दिलाना होगा कि ईश्वर के चिन्तन से हमें सुख की प्राप्ति होगी। और इसके लिए हमें ईश्वर के लाभों को बार-बार अपने चिन्तन में लाना होगा।
मन को रोकना- इसके लिए महर्षि पतंजलि जी ने दो उपाय- अभ्यास और वैराग्य सुझाए हैं।
मन को रोकने का पहला उपाय, वैराग्य- जब किसी वस्तु में हमें दुख दिखाई देता है, तो हमारा मन तुरंत उस वस्तु को प्राप्त करने का प्रयत्न छोड़ देता है। उदाहरण- यदि कोई स्वादिष्ट वस्तु हमारे सामने आ जाए, तो हमारा मन उस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा करने लगेगा। परन्तु, जब उसे यह ज्ञान हो जाए कि उस स्वादिष्ट वस्तु में विष पड़ा हुआ है, तो तुरंत हमारा मन उस वस्तु को लेने का विचार छोड़ देगा। इसलिए, जितना-जितना हमारा मन संसार की वस्तुओं में दुख देखने लगेगा, उतना-उतना वह संसार की वस्तुओं की चाहना नहीं करेगा अर्थात उनका विचार उत्पन्न नहीं करेगा। संसार की वस्तुओं को छोड़ना तभी सम्भव है, जब आत्मा को संसार की वस्तुओं में दुख और ईश्वर में सुख की प्रतीति साथ-साथ हो। किसी वस्तु के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिए जहाँ उस वस्तु से प्राप्त होने वाले दुखों का ध्यान बार-बार करना होता है, वहाँ हमें ईश्वर से प्राप्त होने वाले सुख का भी ध्यान बार-बार करना होता है।
मन को रोकने का दूसरा उपाय, अभ्यास- हमारे मन में संसार की वस्तुओं के प्रति जो वैराग्य उत्पन्न हुआ है, उसको बनाए रखने के लिए और वैराग्य के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए हमें निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है।
कुछ लोग ‘अभ्यास’ का अर्थ समझते हैं कि बार बार किसी विषय का चिंतन करने से हमारे मन में उस विषय के बारे में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, लेकिन यह बात पूर्णता सत्य नहीं। वास्तव में अभ्यास का अर्थ तो वैराग्य को बनाए रखना ही है। ईश्वर विषय का बार बार चिंतन करने से हमारे मन में सांसारिक वस्तुओं के प्रति त्याग की भावना तो उत्पन्न हो सकती है, परन्तु त्याग और वैराग्य में बहुत बड़ा अंतर है। वैराग्य में सांसारिक वस्तुओं को जीवन-रक्षा के लिए भोगते हुए भी उनको भोगने की इच्छा समाप्त हो जाती है। यह बात तुरंत समझ आने वाली नहीं।
अभ्यास और वैराग्य के बारे में अधिक विस्तृत जानकारी के लिए महर्षि पतंजलि कृत योग दर्शन देखें।
मन की शान्ति– आत्मा के दो सर्वोच्च कार्य है- अपने जीवन से दुख दूर करना और सुख को प्राप्त करना। यह ठीक है कि दुख दूर करने से हमें सुख की अनुभूति होती है, परन्तु दुख दूर हो जाना सुख प्राप्त करना नहीं होता। जैसे, चोट लगने पर पीड़ानाशक दवाई ले लेना केवल चोट के दुख को दूर भगाना है, परन्तु सुख तो हमे तभी मिलेगा, जब हम मिठाई आदि खाएँगे। वैसे तो ये दोनों ही कार्य एक साथ अष्टांग योग से पूरे होते हैं, परन्तु हम यहां ‘मन की शान्ति’ के बारे में चर्चा करने वाले हैं। राग और द्वेष की भावना को त्याग देने से हमारे अधिकतर दुख दूर हो जाते है और हमारा मन शांत हो जाता है। परन्तु शाश्वत सुख को प्राप्त करने के किए हमें अपने मन को ईश्वर में लगाना होता है।
-स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक
मन को सुमन बनाना- जैसे ही हम मन को उपरोक्त विधि से चलाने व रोकने लगते हैं, हमारा मन सुमन बनना आरम्भ कर देता है। फिर भी नीचे कुछ बिन्दु दिए जा रहे हैं, जो हमें अपने मन को सुमन बनाने में सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं-
1 मन सत्य से शुद्ध होता है, इसलिए अपने व्यवहार में सत्य आचरण को विशेष स्थान दें।
2 समस्याएँ आने पर घबराएं नहीं। इस विश्वास को दृढ़ रखें कि ईश्वर हर समस्या में हमारे साथ है।
3 अधिक से अधिक समय अपने मन को प्रसन्न रखें। मन की प्रसन्नता से पता चलता है कि हमारा मन में सत्व गुण की प्रधानता है। जिस मन में रजो गुण की प्रधानता होती है, वह मन कभी भी सुमन नहीं बन सकता।
4 संसार की वस्तुओं में राग व द्वेष न करने से हम मन की शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं। इसका बहुत अच्छा तरीका है- दूसरों की सेवा। मन की शान्ति को प्राप्त करने का एक अन्य तरीका है- संतोष।
5 वैदिक कर्मफल व्यवस्था को समझ कर हम अपने मन को भूत और भविष्य की चिंताओं से मुक्त कर सकते हैं। ईश्वर के न्याय को सदा स्मरण रखें।
6 हम प्रयत्न करें कि हम जो भी कार्य करें, उसमें आनन्द की अनुभूति हो।
7 विवादों से बचें।
8 क्षमा करना सीखें।
9 पहचान बनाने की लालसा न रखें।
10 जीवन की परिस्थितियों में अपने आप को बदलना ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। एक-दो बार प्रयास करने के पश्चात यह निश्चय करें कि उक्त व्यक्ति को बदला जा सकता है कि नहीं। यदि नहीं, तो उसे वैसा ही स्वीकार करें और उसके साथ व्यवहार में प्रीति को कदापि न छोड़ें।
11 जब तक मांगी न जाए, सलह न दें।
12 अपनी व अन्यों की दूसरों से तुलना न करें।
13 मन को सुखी करने के बजाए , शान्त करने का प्रयत्न करें।
14 अपनी प्रतिदिन की दिनचर्या में ईश्वर की उपासना को अवश्य शामिल करें।
-आचार्य योगेन्द्र याज्ञिक