बुद्धि और तर्क

ठीक जैसे आंख, कानादि ईश्वर ने हमें देखने, सुनने के लिए दिए हैं, वैसे ही संसार की भिन्न-भिन्न वस्तुओं का निश्चयात्मक ज्ञान कराने के लिए ईश्वर ने हमें बुद्धि नामक यंत्र प्रदान किया है। जैसे आँख होते हुए भी, आँख का प्रयोग देखने के लिए न करने को मूर्खतापूर्ण ही कहा जाएगा, उसी तरह बुद्धि के होते हुए भी, इसका वस्तुओं को जानने के लिए प्रयोग न करना मूर्खतापूर्ण ही है। तर्क एक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से बुद्धि काम करती है। संसार की भिन्न-भिन्न वस्तुओं को जानने के लिए हम बुद्धि और तर्क का प्रयोग करते हैं, परन्तु पौराणिक जगत में आत्मा, परमात्मा और धर्म को जानने के लिए, बुद्धि के प्रयोग को सिरे से नकार दिया जाता है।
पौराणिक जगत में यह माना जाता है कि आध्यत्म में पहले किसी वस्तु को दिल से मानना होता है और उसके बाद उस वस्तु को जानना होता है। यदि, वस्तु के प्रति श्रद्धावान होते हुए भी उस वस्तु को जाना न जाए, तो यह कह दिया जाता है कि श्रद्धा में अवश्य कमी रही होगी। यह भी माना जाता है कि आध्यत्म में बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं होती।
ईश्वर को पाने के रास्ते में तर्क का कोई स्थान है या नहीं, इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। मान लीजिए, हमने किसी इमारत की छत पर जाकर वहाँ से शहर के दृश्य को निहारना है। अब इमारत की छत पर पहुँचने के लिए हमें सीढ़ियों या लिफ्ट आदि का प्रयोग करना पड़ेगा। बिना किसी माध्यम का प्रयोग किए हम छत पर नहीं पहुँच  सकते। छत पर पहुँचने के बाद शहर का दृश्य निहारने के लिए हमें सीढ़ी या लिफ्ट आदि के माध्यम की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं पड़ती। ठीक इसी तरह तर्क हमें उस स्थान पर पहुंचाने मात्र का कार्य करता है, जहाँ पर पहुँच कर हम ईश्वर को अनुभूत कर सकें।  बिना तर्क के हमारा मन उस स्तर तक पहुँच ही नहीं सकता, जहां पर पहुँच कर हम ईश्वर को अनुभव कर सकें।

तर्क की महत्ता को बताने से पहले एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया को बताना आवश्यक है।  स्वाभाविक सी प्रक्रिया है – पहले वस्तु को जाना अर्थात समझा जाता है और उसके बाद यदि, वह वस्तु हमारी जानकारी के अनुसार उचित होती है, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं अर्थात मान लेते हैं। और किसी वस्तु को समझने के लिए बुद्धि का प्रयोग अवश्यम्भावी है। क्योंकि बुद्धि के ठीक तरह से कार्य करने की प्रक्रिया को ही तर्क नाम दिया जाता है, तो तर्क को किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए अवश्यम्भावी कहना गलत नहीं।

सामान्य बातों को तो केवल तर्क से भी समझा जा सकता है, परन्तु वेद को समझने के लिए तर्क के साथ-साथ परम्परा से चले आ रहे विद्वानों के वचनों को भी जानना होता है। जब हम वेद के सत्य को केवल तर्क से जानने का प्रयत्न करते हैं, तो हम वेद के सत्य से तो वंचित रहते ही हैं, उल्टे तर्क की जगह कुतर्क को जन्म दे बैठते हैं। इसी तरह जब हम वेद के सत्य को केवल दूसरों के कथनों से जानने का प्रयत्न करते हैं, तो हम अंध-विश्वास को जन्म दे देते हैं और हम वेद के सत्य को भी नहीं जान पाते। इसलिए, वेद को समझने के लिए तर्क के साथ-साथ परम्परा से चले आ रहे विद्वानों के वचनों को भी जानना आवश्यक है।