प्रश्न – फल की परिभाषा क्या है?

उत्तर- कर्म का फल भोग है, जो सुख-दुख रूपी अनुभूति वाला होता है। फल हमेशा कर्त्ता को ही मिलता है। सुख-दुख रूपी फल जीवात्मा शरीर, मन, इन्द्रिय तथा विषय से साथ जुड़कर ही प्राप्त करता है और फल भी इन्हीं के माध्यम से मिलता है। बिना शरीर आदि के यह सुख-दुख नहीं होते हैं। कर्म भी जीव इन्हीं साधनों से करता है। संसार में स्त्री, पुत्र, चांदी, भूमि, भवन, मान, पद, प्रतिष्ठा आदि को फल के रूप में मानते हैं। यह सब वस्तुएँ वास्तव में सुख-दुख प्राप्त कराती हैं और साधन मात्र हैं। साधन होने से इन्हें फल के समान मान लिया जाता है, इसलिए ऋषियों ने सकाम कर्मों के फल के रूप में जाति अर्थात योनिविशेष, आयु, भोग माने हैं। तथा निष्काम कर्मों के फल के रूप में मोक्ष फल माना है। किन्तु वास्तव में फल तो केवल सुख-दुख ही हैं।

इसमें शास्त्रीय प्रमाणः-

१.     राग-द्वेष युक्त कर्म से उत्पन्न अर्थ का नाम फल है।

-न्याय दर्शन १//१//२0

२.     स्त्री, पुत्र, सोना, चांदी, भूमि, भवन, मान, पद, प्रतिष्ठा के माध्यम से सुख-दुख रूपी फल की प्राप्ति होती है। अतः स्त्री आदि को फल कहा जाता है।

-न्याय दर्शन ४//१//५४

३.     जीवात्मा का मन, इन्द्रिय तथा विषय के साथ सम्बन्ध होने पर सुख-दुख रूप फल उत्पन्न होते हैं।

-वैशेषिक दर्शन ५//२//१५

कई बार कर्त्ता को क्रिया के परिणाम, फल व प्रभाव की कल्पना भी नहीं होती, पर जब वैसा होता है, तो उसके अनुसार वह स्वयं भी सुखी-दुखी होता है। राजा अशोक ने जब कलिंग युद्ध लड़ा, तो उसने परिणाम सोचा था साम्राज्य का विस्तार। पर हजारों की संख्या में रोते-बिलखते परिवारों को देख उसे वैराग्य हो गया। यह स्वयं कर्त्ता पर युद्ध का कल्पनातीत प्रभाव था। जिस व्यक्ति ने आईन्स्टीन के फार्मूले के आधार पर अणुबम बनाया, उसने सोचा भी नहीं था कि जापान में इतना भयंकर संहार होगा। जब हिरोशिमा नागासाकी पर बम गिराए गए तो, ऐसा बताते हैं उस वैज्ञानिक को इतना कष्ट हुआ कि वह मानसिक रूप से पागल हो गया। यह अणुबम बनाने का कर्त्ता के ऊपर प्रभाव था।