अथ प्रथमसमुल्लासारम्भः

विषय : ईश्वर के ओङ्कार आदि नामों की व्याख्या

 

जो यह ओङ्कार शब्द है, वह परमात्मा का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म तीन अक्षर हैं वे मिल के एक ‘ओम’ समुदाय हुआ है। इस से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं, जैसे-अकार से विराट, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्रज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर के ही हैं।

जैसे किसी ने किसी से कहा, ”हे भृत्य! तू सैन्धव को ले आ।” तब उसको समय अर्थात प्रकरण का विचार करना अवश्य है। क्योंकि सैन्धव नाम दो पदार्थों का है, एक घोड़े और दूसरा लवण का। जो गमन का समय हो तो घोड़े और भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उचित है। और जो गमनसमय में लवण और भोजनसमय में घोड़े को ले आवे, तो उसका स्वामी उसपर क्रुद्ध होकर कहेगा कि तू निर्बुद्धि पुरुष है। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो, वहाँ उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिए, तो ऐसा ही हम और आप सब लोगों को मानना और करना भी चाहिए। 

यहाँ इन प्रमाणों के लिखने में तात्पर्य वही है कि जो, ऐसे-ऐसे प्रकरणों में ओङ्कार आदि नामों से परमात्मा का ग्रहण होता है, लिख आए। परमेश्वर का कोई भी नाम अनर्थक नहीं, जैसे लोक में दरिद्री आदि के धनपति आदि नाम होते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ की कहीं गौणिक, कहीं कार्मिक और कहीं स्वभाविक अर्थों के वाचक हैं। (ईश्वर के) ओम आदि नाम सार्थक हैं- जैसे रक्षा करने से ‘ओम’, आकाशवत व्यापक होने से ‘खम’ सबसे बड़ा होने से ईश्वर का नाम ‘ब्रह्म’ है।    

जगत के बनाने से ‘ब्रह्मा’, सर्वत्र व्यापक होने से ‘विष्णु’, दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से ‘रुद्र’, मङ्गलमय और सबका कल्याणकर्त्ता होने से ‘शिव’, जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशी, स्वयं प्रकाशस्वरूप और प्रलय में सबका काल और काल का भी काल है, इसलिए परमेश्वर का नाम कालाग्नि है।

जो वायु के समान अनन्त बलवान है, इसलिए परमात्मा के ‘दिव्य’, ‘सुपर्ण’, ‘गरुत्मान’ और मातरिश्वा ये नाम हैं। शेष नामों का अर्थ आगे लिखेंगे। 

ऐसे प्रकरणों में विराट, पुरुष, देव, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि आदि नाम लौकिक पदार्थों के होते हैं, क्योंकि जहाँ-जहाँ उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञ, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों, वहाँ-वहाँ परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता। वह उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक है और उपरोक्त मन्त्रों में उत्पत्ति आदि व्यवहार हैं, इसी से यहाँ विराट आदि नामों से परमात्मा का ग्रहण न होके, संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है। 

प्रश्न- मित्रादि नामों से सखा और इन्द्रादि देवों के प्रसिद्ध व्यवहार देखने से उन्हीं का ग्रहण करना चाहिए।

उत्तर- यहाँ उनका ग्रहण करना योग्य नहीं, क्योंकि जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और किसी से उदासीन भी देखने में आता है। इससे मुख्यार्थ में सखा आदि ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु जैसा परमेश्वर सब जगत का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है, इससे भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नहीं हो सकता। इसलिए परमात्मा ही का ग्रहण यहाँ होता है। हाँ, गौण अर्थ में मित्रादि शब्द से सुहृदादि मनुष्यों का ग्रहण होता है।

जो सबका  ज्ञान, सर्वसुख, पवित्रता, अनन्त बलादि गुणों से युक्त है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘सगुण’ है। जैसे पृथ्वी गन्धादि गुणों से ‘सगुण’ और इच्छा आदि गुणों से रहित होने से ‘निर्गुण’  है, वैसे जगत और जीव के गुणों से पृथक होने से परमेश्वर ‘निर्गुण’ और सर्वज्ञादि गुणों से सहित होने से ‘सगुण’ है, अर्थात ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो सगुण और निर्गुणता से पृथक हो।

 प्रश्न- जैसा अन्य ग्रन्थकार लोग आदि, मध्य और अन्त में मङ्गलाचरण करते  हैं,वैसे आपने कुछ भी न लिखा, न किया?

उत्तर- — जो न्याय, पक्षपातरहित, सत्य, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा है, उसी का यथावत सर्वत्र और सदा आचरण करना मङ्गलाचरण कहाता है।

ऐसे ही अन्य ऋषि-मुनियों के ग्रंथों में ‘ओम’ और ‘अथ’ शब्द लिखे हैं, वैसे ही ये शब्द चारों वेदों के आदि में लिखे हैं। ‘श्री गणेशाय नमः’ इत्यादि शब्द कहीं नहीं। और जो वैदिक लोग वेद के आरम्भ में ‘हरिः ओम’ लिखते और पढ़ते हैं, यह पौराणिक और तान्त्रिक लोगों की मिथ्या कल्पना से सीखे हैं। केवल ओङ्कार का पाठ तो ऋषि-मुनियों के ग्रंथों में देखने में आता है, ‘हरि’ शब्द आदि में कहीं नहीं। इसलिए ‘ओम’ वा ‘अथ’ शब्द ही ग्रंथ की आदि में लिखना चाहिए।