अथ पंचमसमुल्लासारम्भः
विषय : वानप्रस्थ और सन्यासाश्रम की विधि
मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्य्याश्रम समाप्त करके गृहस्थ, गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होके संन्यासी होवें, अर्थात् यह अनुक्रम से आश्रम का विधान है।
वानप्रस्थ को उचित है कि -मैं अग्रि में होम करके दीक्षित होकर व्रत, सत्याचरण और श्रद्धा को प्राप्त होऊं -ऐसी इच्छा करके वानप्रस्थ होवे, नाना प्रकार की तपश्चर्या, सत्सङ्ग, योगाभ्यास और सुविचार से ज्ञान और पवित्रता प्राप्त करे। पश्चात् जब संन्यास के ग्रहण की इच्छा हो तब स्त्री को पुत्रों के पास भेज देवे, फिर सन्यास ग्रहण करे।
-यजुर्वेद 20//24
इस प्रकार वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात् पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ होके, आयु के चौथे भाग में सङ्गों को छोड़ के परिव्राट् अर्थात संन्यासी हो जावे।
-मनुस्मृति 6//33
प्रश्न – ग्रहाश्रम और वानप्रस्थाश्रम न करके, संन्यासाश्रम करे, उसको पाप होता है वा नहीं?
उत्तर – होता है, और नहीं भी होता।
प्रश्न- यह दो प्रकार की बात क्यों कहते हो?
उत्तर – दो प्रकार की नहीं। क्योंकि जो बाल्यावस्था मे विरक्त होकर विषयों में फसे वह महापापी, और जो न फसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरुष है।
जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो, उसी दिन घर वा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे। पहिला पक्ष क्रमसन्यास का कहा। और [यह द्वितीय पक्ष] इसमें विकल्प अर्थात् वानप्रस्थ न करे, गृहस्थाश्रम ही से सन्यास ग्रहण करे और तृतीय पक्ष यह है कि जो पूर्ण विद्वान, जितेन्द्रिय, विषय-भोग की कामना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे।
-ऋग्वेद 8//6//18, ऋग्वेद 10//109//4, यजुर्वेद 40//7
जो दुराचार से पृथक् नहीं, जिसको शन्ति नहीं, जिसका आत्मा योगी नहीं, और जिसका मन शान्त नहीं है, वह संन्यास लेके भी प्रज्ञान से परमात्मा को प्राप्त नहीं होता।
-कठोपनिषद् 2//23
सन्यासी बुद्धिमान् वाणी और मन को अधर्म से रोके, उनको ज्ञान और आत्मा में लगावें, और उस ज्ञान स्वात्मा को परमात्मा से लगावें और उस विज्ञान को शान्तस्वरूप आत्मा में स्थिर करे।
-कठोपनिषद् 3//13
सदा इनका संग छोड़ देवे–
जो अविद्या के भीतर खेल रहे हैं अपने को धीर और पंडित मानते और नीच गति को जानेहारे जैसे अंधे के पीछे अन्धे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं, इससे मूढ़ दुखों को प्राप्त होते हैं।
-मुण्डकोपनिषद 1//2//8
जो बहुधा अविद्या में रमण करने वाले बाल बुद्धि ‘हम कृतार्थ हैं’ वैसे मानते हैं, जिनको केलव कर्मकाण्डी-लोग राग से मोहित होकर नहीं जान और जना सकते, वे आतुर होके जन्ममरणरूप दुख में गिरे रहते हैं।।
-मुण्डकोपनिषद 1//2//9
जो वेदान्त अर्थात् परमेश्वर प्रतिपादक वेदमन्त्रों के अर्थज्ञान और आचार में अच्छे प्रकार निश्चित संन्यासयोग से शुद्धान्तःकरण संन्यासी होते हैं, वे परमेश्वर में मुक्ति सुख को प्राप्त हो, भोग के पश्चात् जब मुक्ति में सुख की अवधि पूरी हो जाती है तब वहाँ से छूट कर संसार में आते हैं। मुक्ति के बिना दुख का नाश नहीं होता।
-मुण्डकोपनिषद 3//2//6
जो देहधारी है, वह सुख-दुख की प्राप्ति से पृथक् कभी नहीं रह सकता और जो शरीरहित जीवात्मा मुक्ति में सर्वव्यापक परमेश्वर के साथ, शुद्ध होकर रहता है, तब उसको सांसारिक सुख-दुख प्राप्त नहीं होता।
-छान्दोग्योपनिषद 8//12//1
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सब भूतों से निर्वैर, इन्द्रियों के दुष्ट विषयों का त्याग, वेदोक्त कर्म और अत्युग्रतपश्चरण से इस संसार में मोक्षपद को पूर्वोक्त संन्यासी ही सिद्ध कर और करा सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
-मनुस्मृति 6//75
जब संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थो में निःस्पृह कांक्षारहित और सब बाहर-भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में और मरण पाके निरन्तर सुख को प्राप्त होता है।
-मनुस्मृति 6//80
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प्रश्न -संन्यायग्रहण की आवश्यकता क्या है?
उत्तर- जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है, वैसे आश्रमों में संन्यास की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्या, धर्म कभी नहीं बढ़ सकता और दूसरे आश्रमों को विद्याग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि का सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत् का उपकार कर सकता है, वैसा अन्य आश्रम नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को जितना अवकाश सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का मिलता है, उतना अन्य आश्रम को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रह्मचर्य्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्यशिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है, उतनी गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।
प्रश्न – संन्यास ग्रहण करना ईश्वर के अभिप्राय से विरुद्ध है, क्योंकि ईश्वर का अभिप्राय मनुष्यों की बढ़ती करने में है। जब गृहाश्रम नहीं करेगा तो उससे सन्तान ही न होंगे। जब संन्यासाश्रम ही मुख्य है और सब मनुष्य करें तो मनुष्यों का मूलच्छेदन हो जाये।
उत्तर – अच्छा, विवाह करके भी बहुतों के सन्तान नहीं होते, अथवा होकर शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, फिर वह भी ईश्वर के अभिप्राय से विरुद्ध करने वाला हुआ। जो तुम कहो कि –
‘यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः’
-यह किसी कवि का वचन है। [पञ्चतन्त्र, मित्रभेद कथा ४, श्लोक २१७] जो यत्न करने से भी कार्य्य सिद्ध न हो तो इसमें कोई भी दोष नहीं, तो हम तुम से पूछते हैं कि गृहाश्रम से बहुत से सन्तान होकर, आपस में विरुद्धाचरण कर, लड़ मरें तो हानि कितनी बड़ी होती है? समझ के विरोध से लड़ाई बहुत होती है। जब संन्यासी एक वेदोक्तधर्म के उपदेश से परस्पर प्रीति उत्पादन करावेगा तो लाखों मनुष्यों को बचा देगा। सहस्त्रों गृहस्थ के तुल्य मनुष्यों की बढ़ती करेगा। सब मनुष्य सन्यासग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योंकि सब की विषयासक्ति कभी नहीं छूट सकेगी। जो-जो सन्यासियों के उपदेश से धार्मिक मनुष्य होंगे, वे सब जानो संन्यासी के पुत्र-तुल्य हैं।
प्रश्न – संन्यासी लोग कहते हैं कि हमको कुछ कर्त्तव्य नहीं। अन्न-वस्त्र लेकर आनन्द में रहना, अविधारूप संसार से माथापच्ची क्यों करना। अपने को ब्रह्म मानकर सन्तुष्ट रहना, कोई आकर पूछे तो उसको भी वैसा ही उपदेश करना कि तू भी ब्रह्म है। तुझको पाप-पुण्य नहीं लगता, क्योंकि शीतोष्ण शरीर, क्षुधा-तृषा प्राण, और सुख-दुख मन का धर्म है। जगत् मिथ्या है और जगत् के व्यवहार भी सब कल्पित अर्थात् झूठे हैं, इसलिये इनमें फसना बुद्धिमानों का काम नहीं। जो कुछ पाप-पुण्य होता है, वह देह और इन्द्रियों का धर्म है, आत्मा का नहीं, इत्यादि उपदेश करते हैं। और आपने और ही संन्यास का धर्म कहा। अब हम किसको सच्चा मानें?
उत्तर – क्या उनके अच्छे कर्म भी कर्त्तव्य नहीं? देखो! मनुजी ने ‘वैदिक कर्म’ जो कि धर्मयुक्त सत्य-कर्म हैं, सन्यासियों को भी अवश्य करना लिखा है। क्या भोजन-छादनादि कर्म वे छोड़ सकेंगे? जब ये कर्म नहीं छूटते तो उत्तम कर्म छोड़ने से वे पतित नहीं होंगे? जब गृहस्थों से अन्न-वस्त्रादि लेते हैं और उनका उपकार नहीं करते तो क्या वे महापापी नहीं होंगे? जैसे आंख से देखना, कान से सुनना न हो तो आंख और कान का होना व्यर्थ है, वैसे ही जो संन्यासी सत्योपदेश और वेदादि-सत्यशास्त्रों का विचार-प्रचार नहीं करते तो वे भी जगत् में व्यर्थ भाररूप हैं। और जो अविधारूप संसार में माथापच्ची क्यों करना आदि लिखते और कहते हैं, वैसे उपदेश करने वाले ही मिथ्यारूप और पाप के बढ़ानेहारे पापी हैं। जो कुछ शरीरादि से कर्म किये जाते हैं, वे सब आत्मा ही के और उनका फल भोगने वाला भी आत्मा है। जो जीव को ब्रह्म बतलाते हैं, वे अविद्यानिद्रा में सोते हैं। क्योंकि ‘जीव’ अल्प, अल्पज्ञ और ‘ब्रह्म’ सर्वव्यापक, सर्वज्ञ है। ब्रह्म नित्य-शुद्ध-मुक्तस्वभावयुक्त है, और जीव कभी बद्ध, कभी मुक्त रहता है। ब्रह्म को सर्वव्यापक सर्वज्ञ होने से भ्रम वा अविद्या कभी नहीं होती, और जीव को कभी विद्या और कभी अविद्या होती है। ब्रह्म जन्ममरण दुख को कभी नहीं प्राप्त होता और जीव प्राप्त होता है, इसलिये वह उनका उपदेश मिथ्या है।
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प्रश्न – अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन है?
उत्तर- सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें, परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षता संन्यासी को होती है, उतनी गृहस्थों को नहीं। हां, जो ब्राह्मण हैं, उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है, उतना गृहस्थ ब्राह्मणादि को कभी नहीं मिल सकता। सब ब्राह्मण वेदविरुद्ध आचरण करें, तब उनका नियन्ता संन्यासी ही होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।
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….जब मूर्ख और स्वार्थियों को दान देने में अच्छा समझते हैं, तो विद्वान् और परोपकारी संन्यासियों को देने में कुछ भी दोष नहीं हो सकता।
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प्रथम तो मरे हुए पितरों का आना और किया हुआ श्राद्ध मरे हुए पितरों को पहुँचना ही असम्भव, वेद और युक्तिविरुद्ध होने से मिथ्या है। और जब आते ही नहीं तो भाग कौन जायेंगे? जब अपने पाप-पुण्य के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से मरण के पश्चात् जीव जन्म लेते हैं तो उनका आना कैसे हो सकता है? इसलिये यह भी बात पेटार्थी, पुराणी और वैरागियों की मिथ्या कल्पी हुई हैं। हां, यह तो ठीक है कि जहां संन्यासी जायेंगे, वहां यह मृतक-श्राद्ध करना वेदादि-शास्त्रों से विरुद्ध हाने से पाखण्ड दूर भाग जाएगा।
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….जैसे वैद्य और औषधों की आवश्यकता रोगी के लिये है, नीरोगों के लिये नहीं। वैसे जिस पुरुष वा स्त्री को विद्या, धर्मवृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो, वह विवाह न करे।
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