अथ दशमसमुल्लासारम्भः
विषय : आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य
मनुष्यों को सदा इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि जिसका सेवन राग-द्वेष रहित विद्वान लोग नित्य करें, जिसको ‘हृदय’ अर्थात् आत्मा से सत्य-कर्त्तव्य जानें, वही धर्म माननीय और करणीय समझें।
-मनु-स्मृति 2//1
…सब ‘काम’ अर्थात् यज्ञ, सत्यभाषणादि-व्रत, यम, नियमरूपी धर्म सब संकल्प ही से बनते हैं।
-मनु-स्मृति 2//3
…जो द्रव्यों के लोभ और ‘काम’ अर्थात् विषयसेवा में फसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है। जो धर्म को जानने की इच्छा करें, उनके लिये वेद ही परम प्रमाण है।
-मनु-स्मृति 2//12
….शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है।….
-मनु-स्मृति 2//65
मनुष्य का यही मुख्य आचार है कि जो इन्द्रियाँ चित्त को हरण करने वाले विषयों में प्रवृत्त कराती हैं, उनको रोकने में प्रयत्न करे। जैसे घोड़ों को सारथि रोककर शुद्ध मार्ग में चलाता है, इस प्रकार इनको अपने वश में करके अधर्ममार्ग से हटाके धर्ममार्ग में सदा चलाया करे।
-मनु-स्मृति 2//88
क्योंकि इन्द्रियों को विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चित दोष को प्राप्त होता है। और जब इनको जीतकर धर्म में चलाता है, तभी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है।
-मनु-स्मृति 2//93
यह निश्चय है कि जैसे अग्रि में इन्धन और घी डालने से बढ़ता जाता है, वैसे ही कामों के उपभोग से काम शान्त कभी नहीं होता, किन्तु बढ़ता ही जाता है, इसलिये मनुष्य को विषयासक्त कभी न होना चाहिये।
-मनु-स्मृति 2//94
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‘जितेन्द्रिय’ उसको कहते हैं कि जो स्तुति सुनके हर्ष और निन्दा सुनके शोक, अच्छा स्पर्श करके सुख और दुष्ट स्पर्श से दुख, सुन्दर रूप देखके प्रसन्न और दुष्टरूप देखके अप्रसन्न, उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजन करके दुखित, सुगन्ध में रुचि और दुर्गन्ध में अरुचि नहीं करता।
-मनु-स्मृति 2//110
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क्योंकि चाहै सौ वर्ष का भी हो परन्तु जो विद्या, विज्ञानरहित है, वह बालक और विद्या, विज्ञान का दाता है, उस बालक को भी वृ़द्ध मानना चाहिये। क्योंकि सब शास्त्र आप्त विद्वान अज्ञानी को ‘बालक’ और ज्ञानी को ‘पिता’ कहते हैं।
-मनु-स्मृति 2//154
शिर के बाल श्वेत होने से बुड्ढा नहीं होता, किन्तु जो युवा विद्या पढ़ा हुआ है, उसी को विद्वान लोग बड़ा जानते हैं।
-मनु-स्मृति 2//157
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….जिस-जिस कर्म से जगत् का उपकार हो, वह-वह करना और हानिकारक छोड़ देना ही मनुष्य का मुख्य कर्म है।
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…जो बाहर-भीतर की पवित्रता करनी, सत्यभाषणादि आचरण करना है, वह जहां कहीं करेगा, आचार और धर्मभ्रष्ट कभी न होगा। और जो आर्य्यावर्त्त में रहकर भी दुष्टाचार करेगा, वही धर्म [-भ्रष्ट] और आचारभ्रष्ट कहावेगा।
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भला जो महाभ्रष्ट म्लेच्छकुलोत्पन्न वेश्या आदि के समागम से आचारभ्रष्ट, धर्महीन नहीं होते, किन्तु देश-देशान्तर के उत्तम पुरुषों के साथ समागम में छूत और दोष मानना केवल मूर्खता की बात है।
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सज्जन लोगों को राग, द्वेष, अन्याय, मिथ्याभाषणादि छोड़; निर्वैर, प्रीति, परोपकार, सज्जनतादि का धारण करना उत्तम आचार है। और यह भी समझ लें कि धर्म हमारे आत्मा और कर्त्तव्य के साथ है। जब हम अच्छे काम करते हैं, तो हमको देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर जाने में कुछ भी दोष नहीं लग सकता। ….पाखण्डी लोग यह समझते हैं कि जो हम इनको विद्या पढ़ावेंगे, देश-देशान्तर में जाने की आज्ञा देंगे, तो ये बुद्धिमान् होकर हमारे पाखण्ड-जाल में न फसने से हमारी प्रतिष्ठा और जीविका का नाश करेंगे। इसलिये भोजन-छादन में बखेड़ा डालते हैं कि वे दूसरे देश में न जा सकें।
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आर्यों के घर में ‘शूद्र’ अर्थात् मूर्ख स्त्री-पुरुष पाकादिसेवा करें परन्तु वे शरीर, वस्त्र आदि से पवित्र रहैं।
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…जिन्होंने गुड़, चीनी, घृत, दूध, पिसान, शाक, फल, मूल खाया उन्होंने जानो सब जगत् भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट खा लिया।
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विदेशियों के आर्यावर्त्त में राज्य होने के कारण– आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़नी-पढ़ानी, बाल्यावस्थ में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति मिथ्याभाषणादि कुलक्षण, वेदविद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं। जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है।….
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बुद्धि का नाश करने वाले [पदार्थों] का सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े, बिगड़े, दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्यमांसाहारी म्लेच्छ कि जिनका शरीर मद्यमांस के परमाणुओं ही से पूरित हैं, उनके हाथ का न खावें। जिसमें उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से एक पीढ़ी में कुछ कम चार लाख मनुष्यों को सुख पहुँचता है, वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दें।
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गाय के दूध-घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं, उतने भैंस के दूध से नहीं।….
बकरी के दूध से २५९२० (पच्चीस सहस्त्र नौ सौ बीस) आदमियों का पालन होता है, वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गदहे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं। इन पशुओं को मारनेवालों को सब मनुष्यों की हत्या करनेवाले जानियेगा।
देखो! जब आर्यों का राज्य था तब से महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे। ….जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गो आदि पशुओं के मारनेवाले मद्याहारी राज्याधिकारी हुए हैं, तब से क्रमशः आर्यों के दुख की बढ़ती होती जाती है।
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….जिस के लिये जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का त्याग और जो-जो जिस-जिसके लिये विहित हैं, उन-उन का ग्रहण करना ‘भक्ष्य’ है।
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न किसी को अपना उच्छिष्ट दे और न किसी के भोजन के बीच में आप खावे।
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….जैसे अपने मुख, नाक, कान, आँख, उपस्थ और गुह्य इन्द्रियों के मलमूत्रादि के स्पर्श में घृणा नहीं होती, वैसे किसी दूसरे के मल-मूत्र के स्पर्श में होती है। इसलिये सिद्ध होता है कि यह व्यवहार सृष्टिक्रम से विपरीत नहीं है, इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि किसी का उच्छिष्ट कोई भी न खावे।
प्रश्न- क्या स्त्री-पुरुष भी साथ और उच्छिष्ट न खावें?
उत्तर – नहीं। क्योंकि उनके भी शरीरों का स्वभाव भिन्न भिन्न है।
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प्रश्न- जो गाय के गोबर से चौका लगाते हो, तो अपने गोबर से क्यों नहीं लगाते? और गोबर के चौके में जाने से चौका अशुद्ध क्यों नहीं होता?
उत्तर – गाय के गोबर से वैसा दुर्गन्ध नहीं होता जैसा कि मनुष्य के मल से। (गोबर) चिकना होने से शीघ्र नहीं उखड़ता, न कपड़ा बिगड़ता, न मलीन होता है। जैसा मिट्टी से मैल चढ़ता है, वैसा सूखे गोबर से नहीं होता। मिट्टी और गोबर से जिस स्थान को लेपन करते हैं, वह देखने में अतिसुन्दर होता है।
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जो आर्यों से शुद्ध रीति से बनावे तो बराबर सब आर्यों के साथ खाने में कुछ हानि नहीं। क्योंकि जो ब्राह्मणादि वर्णस्थ स्त्री-पुरुष रसोई बनाने, चौका देने, बर्तन- मांजने आदि बखेड़ों में पड़े रहैं तो विद्यादि शुभगुणों की वृद्धि कभी न हो। ….काबुल, कन्धार, ईरान, अमेरिका, यूरोप आदि के देशों के राजाओं की कन्या गान्धारी, माद्री, उलोपी आदि के साथ आर्य्यावर्त्तदेशीय राजा-लोग विवाह करते थे। शकुनि आदि कौरव-पाण्डवों के साथ खाते-पीते थे, कुछ विरोध नहीं करते थे, क्योंकि उस समय सर्व-भूगोल में वेदोक्त एक मत था, उसी में सबकी निष्ठा थी और एक दूसरे का सुख-दुख हानि लाभ आपस में अपने समझते थे, तभी भूगोल में सुख था। अब तो बहुत मत वाले होने से बहुत सा दुख और विरोध बढ़ गया है। इसका निवारण करना बुद्धिमानों का काम है। परमात्मा सबके मन में सत्य-मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय को प्राप्त हों। इसमें सब विद्वान लोग विचारकर विरोध छोड़ के अविरुद्धमत के स्वीकार से सब जने मिलकर सब के आनन्द को बढ़ावें।
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विद्वानों का यही काम है कि सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं। वे ही गुणग्राहक पुरुष विद्वान होकर धर्म, अर्थ काम और मोक्षरूप फलों को प्राप्त होकर प्रसन्न रहते हैं।
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