दर्शनों को पढ़ने का क्रम

वेदों के उपांग कहे जाने वाले छः दर्शन वास्तव में एक ही वैदिक-दर्शन के विभिन्न भाग हैं, अर्थात ये छः दर्शन भारतीय दर्शन के विभिन्न भागों को विस्तार से समझाने वाले छः विभिन्न शास्त्र हैं। इनको एक ही दर्शन के अवयव मानने से इनमें कहीं भी विरोध प्रतीत नहीं होता, बल्कि ये सभी दर्शन एक दूसरे के पूरक प्रतीत होने लगते हैं। भागों से उस आकृति तक पहुंचने के लिए जिसके ये भाग हैं, भागों को एक व्यवस्थित क्रम में रखा हुआ होना आवश्यक है। वर्त्तमान में कुछ ही विद्वानों का ध्यान इस क्रम की ओर गया है, जिनमें से दर्शनों को पढ़ने के विशेष क्रम का मौलिक चिन्तन तो केवल महर्षि स्वामी दयानन्द जी का ही है। दर्शनों को पढ़ने का वह विशेष क्रम है- मीमांसा दर्शन अथवा पूर्व मीमांसा, वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, योग दर्शन, सांख्य दर्शन और वेदान्त दर्शन अथवा उत्तर मीमांसा। उन्होंने जहां जहां भी अपने लेखों में दर्शनों के विषय में लिखा है, वहां वहां इसी क्रम को उद्धृत किया है।

हालाँकि, यह ठीक है कि भारतीय दर्शन के मूल को समझने के लिए इन छः दर्शनों को ऊपर वर्णित क्रम से ही पढ़ना चाहिए, परन्तु आज जब लोगों में दर्शनों के प्रति श्रद्धा नगण्य है, ऐसी अवस्था में भी दर्शनों को पढ़ने के इसी क्रम पर बल देना बुद्धिमानी नहीं मानी जा सकती। हाँ, जिन लोगों में पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण दर्शनों के प्रति श्रद्धा है, उनको तो अवश्य ही दर्शनों को इसी क्रम से पढ़ना चाहिए। अन्य लोग आकर्षण, रुचि, उपयोगिता आदि को ध्यान में रखते हुए दर्शनों में वर्णित अमूल्य ज्ञान-राशि को इस क्रम से पढ़ें-  योग दर्शन, सांख्य दर्शन,  न्याय दर्शन, वेदान्त दर्शन अथवा उत्तर मीमांसा, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन अथवा पूर्व मीमांसा।