प्रश्न – जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, परन्तु फल भोगने में परतंत्र क्यों?

उत्तर- जीवात्मा अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र है इसका कारण निम्न है, प्रथम- जीवात्मा स्वयं कर्मों का फल ले नहीं सकता, क्योंकि उसका ज्ञान तथा सामर्थ्य बहुत कम है। जीवन भर तक शरीर, वाणी, मन द्वारा कितने कर्म किये हैं, उन सबको वह याद नहीं रख सकता। जब कर्म का ही पूरा-पूरा निर्णय नहीं कर सकता, तो फल कैसे ले सकता है? और फल को प्राप्त करने के लिए पशु, पक्षी, मनुष्यादि का शरीर चाहिये तथा वृक्ष, वनस्पति, फल, अन्नादि खाद्यान्न भी चाहिए, साथ ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रादि गृह, उपग्रह चाहिएँ। इन साधनों के बिना जीव अपने कर्मों का फल भोग नहीं सकता। जीवात्मा का ज्ञान व सामर्थ्य इतना न्यून है कि वह इन सब पदार्थों का निर्माण नहीं कर सकता।

इसके अतिरिक्त कोई भी जीवात्मा अपने बुरे कर्मों के दुख रूप फल लेना भी नहीं चाहता है। यह संसार में स्पष्ट देखते हैं कि कोई भी चोर चोरी करके स्वयं जेल में नहीं जाता और न कोई हत्यारा या डाकू स्वयमेव फांसी पर लटकना चाहता है, इसलिए जीवात्मा न तो स्वयं अपने अच्छे-बुरे कर्मों की परिगणन करता है, और न वह अपने कर्म फलों को प्राप्त करने के लिए साधनों को बना सकता है, न बुरे कर्मों का फल स्वयं प्राप्त करना चाहता है। इसलिए ईश्वर ने फल देने की व्यवस्था अपने अधिकार में रखी है।

इस संसार में कर्म करने वाले जीव और फल देने वाला ईश्वर है। 

-यजुर्वेद ७//४८