जप -क्या, क्यों और कैसे?

बहुत से लोग गुरुमंत्र या बीजमंत्र के जप को ही ध्यान समझते हैं। वस्तुतः जप ध्यान की एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। ध्यान के समय ईश्वर के विचार को देर तक बनाए रखने के लिए जप नामक क्रिया की जाती है। जप में किसी शब्द का उच्चारण किया जाता है, जिससे कि ईश्वर का स्मरण किया जा सके। क्योंकि ‘ओम’ ईश्वर का निज वा व्यक्तिवाचक नाम है, इसलिए ईश्वर का स्मरण करने के लिए ‘ओम’ शब्द का जप सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जप करने का लाभ उठाने के लिए एक बात का ध्यान रखना अति आवश्यक है। वह है-जप किए जाने वाले शब्द के अर्थ का चिन्तन। अर्थ के चिन्तन के बगैर किया गया जप व्यर्थ है।

किसी भी वस्तु को उसके गुणों से जाना जाता है। ईश्वर के अनन्त गुण हैं। वे सभी गुण ईश्वर के ‘ओम’ नाम में समाहित हैं। अभ्यास से, जैसे ही हम ‘ओम’ शब्द का उच्चारण करते हैं, वैसे ही हमें उसके अनेकों गुणों का स्मरण हो उठता है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे ‘आम’ शब्द का उच्चारण करते ही हमें ‘आम’ नामक फल का रंग-रूप, स्वाद आदि स्मरण हो उठते हैं। साधरण व्यक्तियों को केवल भौतिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष ही हो सकता है, जिससे उन्हें भौतिक वस्तुओं के गुणों की जानकारी पर निश्चयात्मकता हो जाना सरल हो जाता है। लेकिन, ईश्वर का प्रत्यक्ष केवल योगी व्यक्ति ही कर सकते हैं। इस कारण, ईश्वर नामक सत्ता के गुणों के बारे में विभिन्न मत हैं। क्योंकि, आज ध्यान सभी मतों में व्याप्त है, इसलिए हम ध्यान के समय ईश्वर का चिंतन करने के लिए ईश्वर के ऐसे गुणों का आगे उल्लेख कर रहे हैं, जो सभी मत वालों को समान रूप से स्वीकारीय हैं।

ईश्वर के गुण– हम क्लेशों आदि से छूटना चाहते हैं, इसलिए ईश्वर नाम की सत्ता ऐसी होनी चाहिए, जसको क्लेश, दुख आदि छू भी न पाएं। हमारे सभी कर्म किसी न किसी कामना की पूर्ति के लिए ही होते हैं। इसलिए ईश्वर नाम की सत्ता ऐसी होनी चाहिए, जिसमें कोई भी कामना न हो, परन्तु वह हमारी कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हो। ईश्वर कर्म निस्वार्थ भाव से करता है, इसलिए उसके कर्म संस्कारों को पैदा करने वाले नहीं होते। उसका ज्ञान, बल और सामर्थ्य अनन्त है। वह ईश्वर ही हमारे हित को पूर्णता से जानता है, इसलिए केवल वह ही हमें सत्य प्रेरणा दे सकता है। वह हमारा वास्तविक मित्र है और कालातीत होने के कारण,  वह गुरुओं का भी गुरु है।

इस बात पर सभी एकमत हैं कि ईश्वर का हम आत्माओं के साथ पिता पुत्र जैसा सम्बन्ध है। जैसे पिता अपने पुत्र की सभी कालों में व सभी स्थितियों में रक्षा व पालन करता है, उसी तरह ईश्वर भी सतत हमारी रक्षा व पालन कर रहा है। हमारे जीवन के आधार कहे जाने वाले प्राणों को देने वाला भी वह ईश्वर ही है। उसकी रक्षा और पालना के बिना हम जीवित नहीं रह सकते। ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में जप के माध्यम से ईश्वर के इन्हीं दो गुणों का चिन्तन करना पर्याप्त है। 

 

पर्याप्त नियन्त्रण के अभाव में हमारे विचार अधिक देर तक स्थिर नहीं रह पाते हैं। जब भी जप में उच्चारित शब्द के अर्थ का लोप हो जाए, तो हमें फिर से उस शब्द का उच्चारण करना होता है। धीरे-धीरे उच्चारित शब्द के अर्थ को स्मरण रख पाने की अवधि में वृद्धि होती जाती है। उच्चतर अवस्था में बार बार जप करने की आवश्यकता नहीं रहती। उच्चतम अवस्था में जप करने की ही आवश्यकता नहीं रहती। बिना किसी शारीरिक प्रयास के मन में जप चलता ही रहता है। इसी को ‘मानसिक जप’ वा ‘अजपा जप’ कह दिया जाता है। ‘मानसिक जप’ की अवस्था को प्राप्त करने से पहले एक अवस्था ऐसी भी आती है, जब शब्द के उच्चारण में ध्वनि की आवश्यकता नहीं रहती, बल्कि केवल मात्र होंठ हिलाने से हम उस शब्द के अर्थ का चिंतन कर पाते हैं। इसे ‘उपांशु जप’ कहा जाता है। कुछ समय के अभ्यास के पश्चात शाब्दिक जप सरलता से उपांशु जप और मानसिक जप में परिवर्तित हो जाता है।

परिपक्व अवस्था में जैसे ही ‘ओम’ का उच्चारण किया जाएगा, वैसे ही सम्बन्धित अर्थ व भाव आने लग जाएंगे। यही स्थिति सच्चे ईश्वर-प्रणिधान वा भक्ति की अवस्था है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ‘जप’ ईश्वर-प्रणिधान अथवा भक्ति की अवस्था को प्राप्त करने का आवश्यक साधन है। इसलिए, जप के लाभों को ईश्वर-प्रणिधान के लाभों के रूप में भी कहा जा सकता है।

ईश्वर-समर्पण रूपी प्रणव-जप से होने वाले आध्यात्मिक लाभों का वर्णन करते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं कि ईश्वर-प्रणिधान से चित्त के विक्षेप सरलता से दूर हो जाते हैं और जीवात्मा अपने मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है। इन आध्यात्मिक लाभों के अतिरिक्त ईश्वर-प्रणिधान रूपी प्रणव-जप से अनेक भौतिक लाभ भी होते हैं। विधिपूर्वक ओम जप से योग-मार्ग की सभी शारीरिक व मानसिक बाधाएं दूर होती हैं। अनेक शारीरिक व मानसिक रोग शीघ्रता से दूर हो जाते है और औषधियों की कार्यक्षमता बढ़ जाती है, अकर्मण्यता नष्ट हो जाती है व मन परिश्रम करने को करता है, व्यक्ति की निर्णय-शक्ति बढ़ती है व वह संशय की स्थिति को नष्ट कर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान पाता है, उद्देश्य  के प्रति गम्भीरता आ जाती है, जड़ता समाप्त होकर शरीर में सत्व तत्व की प्रधानता होती है, विषय-भोग की इच्छाएं कम होती चली जाती हैं, भ्रमों का नाश होता है व कल्पित भय-शंकाएं दूर होती हैं, शारीरिक व मानसिक दुख कम व्यथित करते हैं, द्वेष भाव, खिन्नता, उग्रता आदि क्लेश दूर होते हैं और शरीर के अंगों व प्राणों पर नियंत्रण बढ़ जाता है। जितना अधिक हमारा ईश्वर के प्रति समर्पण होगा, उतनी अधिक हमारे और उसके बीच के सम्बन्धों में दृढ़ता होगी, जिससे हमारे और ईश्वर के बीच में आने वाली सभी सांसारिक बाधाएं दूर होंगी। 

जप अच्छी तरह से उपासना अथवा ध्यान करने का एक साधन मात्र है। उपासना करने का एक मुख्य उद्देश्य है, हमारा अच्छे से कर्त्तव्य पालन करना। यदि, हमारा उपासना करना हमारे कर्त्तव्य-पालन में बाधा हो, तो हमें उपासना नहीं करनी चाहिए।