प्रश्न – कृत, कारित व अनुमोदित कर्मों का फल न्यूनाधिक होता है या समान?

उत्तर- परिस्थिति विशेष को छोड़कर सामान्य रूप से कृत कर्मों अर्थात् स्वयं किये हुवे बुरे कर्मों का फल कारित अर्थात् करवाये हुवे तथा अनुमोदित अर्थात् समर्थित कर्मों की अपेक्षा अधिक होता है, क्योंकि अति द्वेष आदि प्रवृत्ति होने पर व्यक्ति स्वयं ही हिंसादि दुष्कर्म करता है। अति उग्रता होने पर व्यक्ति का धैर्य, सहनशक्ति नष्ट हो जाते है। किसी से कार्य करवाने में प्रायः समय का अधिक लगना, कर्म का अनिश्चयात्मक होना तथा पूर्ण रूप से संतोष का नहीं होना आदि दोष होते हैं। जब व्यक्ति स्वयं ही किसी कर्म को करता है, तो उसे तृप्ति अर्थात् सन्तोष होता है, ऐसा भी देखने में आता है।

कृत से कारित कर्मों का फल कम मिलता है। क्योंकि कराने वाले व्यक्ति का कर्म अन्य कर्त्ता के अधीन होता है, उसके कर्म का एक भाग बंट जाता है। कर्त्ता व प्रेरक में कर्मफल बंट जाता है। यदि कर्म कृत व कारित दोनों से युक्त है, तो इस प्रकार की अनेक परिस्थितियों में अपवाद रूप में कर्म करनेवाले की अपेक्षा करानेवाला या अनुमोदन करनेवाला व्यक्ति अधिक दोषी होता है। यह उस स्थिति में ही संभव है, जब कि प्रेरक, आदेशकर्त्ता या समर्थक व्यक्ति शक्ति, बुद्धि, सामर्थ्य, पद, प्रतिष्ठा आदि दृष्टियों से बड़ा होता है। समाज में जिसका प्रभाव, वर्चस्व अधिक होता है, वह अपने इन गुणों के कारण निम्न स्तर वाले व्यक्ति को कार्य करने हेतु प्रभावित अर्थात प्रेरित करके विवश भी कर देता है।

इससे साक्षात् कार्य करने वाला कर्त्ता व्यक्ति भय, प्रलोभन, स्वार्थ, आशंकित हानि आदि कारणों से किसी कार्य को गलत जानता मानता हुआ भी कर देता है। इस स्थिति में साक्षात् कर्त्ता प्रेरक आदेशकर्ता व्यक्ति की अपेक्षा कम दोषी होता है।