कुछ पाश्चात्य वैज्ञानिकों के ईश्वर सम्बन्धित उद्धरण
आजकल, पाश्चात्य भौतिक प्रधान देशों का अनुसरण करते हुए हमारे देश के शिक्षित वर्ग व बुद्धिजीवियों की ऐसी मानसिकता बन गई है, जिसके अनुसार ईश्वर नाम की कोई वस्तु वास्तव में है ही नहीं, यह मात्र कल्पना है, ईश्वर की उपासना, ध्यान, पूजा आदि में समय व धन लगाना बिल्कुल व्यर्थ है। जीवन बहुत छोटा है। इसे हमें इन व्यर्थ की बातों में गंवाना नहीं चाहिए। नीचे कुछ पाश्चात्य वैज्ञानिकों के ईश्वर सम्बन्धित उद्धरण दिए गए हैं, ताकि हमारी नई पीढ़ी को नास्तिकता की धारा से मोड़ा जा सके –
‘इतनी गर्मी देने वाला सूर्य और तारे, असंख्य जीव धारियों को अपनी गोद में लपेटे यह पृथ्वी, इस बात के पक्के सबूत हैं कि सृष्टि का उद्भव किसी न किसी काल में, काल की किसी निश्चित अवधि में, घटित हुआ है और इसलिए इस विश्व का कोई न कोई रचयिता होना चाहिए। एक महान प्रथम कारण, एक शाश्वत, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान स्रष्टा अवश्य होना चाहिए और यह सारा विश्व उसी की कारीगिरी है।’
-प्रोफैसर फ्रेंक ऐलन (मनिटोबा विश्वविद्यालय, कनाडा)
-‘विज्ञान का यदि खुले मन से अध्ययन किया जाए, तो उसे प्रथम कारण या कारणों के कारण की ओर आना ही पड़ेगा, उसी प्रथम कारण या कारणों के कारण को परमात्मा कह दिया जाता है।’
– प्रोफैसर एडवर्ड लूथर कैसल (जीवविद और कीटविद अध्यक्ष- जीवविज्ञान विभाग, सनफ्रांसिस्को विश्वविद्यालय)
-‘यद्यपि विज्ञान इस बारे में बड़ी सम्भाव्य स्थापनाएं कर सकता है कि सृष्टि और प्रलय कैसे होते हैं और कैसे ये तारे व अणुओं का संसार आदि बन जाते हैं, किन्तु वह यह नहीं बता सकता कि ये द्रव्य और ऊर्जा कहां से आए और विश्व की रचना ऐसी सुव्यवस्थित क्यों व कैसे है। सीधा विचार करने पर और स्पष्ट ढंग से तर्क करने पर परमात्मा का विचार कहीं न कहीं से आ ही जाएगा।
जो एक बात हम निश्चयपूर्वक जानते हैं, वह यह है कि मानव और विश्व सर्वथा ‘नास्ति’ से सहसा ‘अस्ति’ में नहीं आ गए। ये दोनों सादि हैं और इनका एक आदि रचयिता भी है।’
-पाल क्लेरेंस एबरसोल्ड (जीवभौतिकविद, अणुशक्ति आयोग- अमेरिका)
-‘क्योंकि हम परमात्मा की हस्ती या नेस्ती को सिद्ध नहीं कर सकते, इसलिए हमारे पास सर्वोत्तम उपाय यही रह जाता है कि जो कुछ हम जानते हैं, उसके आधार पर हम बुद्धिमत्तापूर्वक अनुमान लगाएं। इस तरह का अनुमान यह है कि कोई भी जड़ पदार्थ स्वयं अपने आपको उत्पन्न नहीं कर सकता।’
-जार्ज अर्ल डेविस (भौतिकविद, मैटीरियल लेबोरेटरी में न्यूक्लोनिक्स विभाग के अध्यक्ष)
-‘प्रकृति में नियमबद्धता किसी सर्वोच्च कुशल रचयिता के कारण है। उस रचयिता में मुझे जहां बुद्धिपूर्वक नियोजन दृष्टिगोचर होता है, वहां यह भी दिखाई देता है कि उसमें अपनी बनाई सृष्टि के प्रति प्रेम भी है, हित भावना भी है।’
-थामस डेविड पाकर्स (गवेषणा- रसायनविद स्टेनकोई गवेषणा संस्था)
-‘पदार्थ के खुर्दबीन से भी नजर न आने वाले सूक्ष्म अवयवों के उद्गम की व्याख्या करने में विज्ञान असमर्थ है। केवल आकस्मिकता के नियम के सहारे विज्ञान नहीं बता सकता कि जीवन के निर्माण के लिए अणु परमाणु कैसे एकत्रित हो गए। जो सिद्धान्त कट्टरता पूर्वक यह कहता है कि जीवन के सभी उच्चतर रूप अपने वर्त्तमान रूप में आकस्मिक परिवर्तनों या पुनर मिश्रणों से आए हैं, उस सिद्धान्त को मानने के लिए भी श्रद्धा की जरूरत है, जो एक तरह से अयुक्तियुक्त बात को मानने के समान है।’
– प्रोफैसर इरविंग विलियम नौबलौक (प्रकृतिविज्ञानविद, मिशिगन स्टेट विश्वविद्यालय)
-‘यह काफी नहीं है कि प्रकाश, रसायनिक द्रव्य, हवा और पानी की उपस्थिति मात्र से पौधे बढ़ते रहें। बीज के अन्दर ऐसी एक शक्ति है, जो अनुकूल परिस्थितियों में सक्रिय हो उठती है और तब अनेक जटिल और समरस प्रतिक्रियाएं काम करने लगती हैं….
वह कौन था जिसने प्रजनन के और वनस्पतियों के विकास के नियम बनाए और उन्हें चालू किया? स्वभावतः ही यह प्रश्न अत्यन्त आधारभूत प्रश्न की ओर ले जाता है कि सबसे पहले पौधे कहां से आए? वे अकस्मात पैदा हो गए, यह विचार तो कोटि से भी परे की बात है। और तब किसी बुद्धिमान मूल उद्भावक को मानना अवश्य हो जाएगा। …. समस्त प्रकृति का नियंत्रणकर्त्ता परमात्मा है और वही इसको लगातार धारण करता है। ज्यों ज्यों मैं मिट्टियों और पौधों में प्रकृति के कार्यकलाप को देखता हूँ और उसका अध्ययन करता हूँ, त्यों त्यों ईश्वर के प्रति मेरा विश्वास लगातार बढ़ता जाता है। मैं प्रतिदिन उसके सामने आश्चर्य से अभिभूत होकर उसकी स्तुति करता हुआ नतमस्तक हो जाता हूँ।’
– प्रोफैसर लीस्टर जॉन जिमरमैन (वनस्पति क्रियाविज्ञानविद- गोशेन कालेज)
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