प्रश्न – कर्मों का कर्त्ता कौन है?

उत्तर- शरीर में इच्छापूर्वक किये जाने वाले कर्मों का कर्त्ता स्वयं जीवात्मा ही होता है। यद्यपि कर्म करने/न करने से सम्बन्धित प्रेरणा, उत्साह, आदेश, अन्य व्यक्तियों से भी मिलते हैं, जो कर्म करने/न करने में निमित्त बनते हैं, किन्तु मुख्य कर्त्ता तो स्वयं शरीर में बैठा अभिमानी जीवात्मा ही है, जिसकी इच्छा और प्रयत्न से शरीर, मन और वाणी (कर्म के साधन) कर्म करने में प्रवृत्त होते हैं। पाप कर्मों के विषय में कुछ व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि हमारी बुद्धि या मन पाप कराता है। कुछ व्यक्ति इन्द्रियों को, तो कोई भूत प्रेत को, तो कुछ प्रकृति को कर्मों का कर्त्ता मानते हैं। किसी-किसी सम्प्रदायवालों ने तो शैतान को पाप कर्मों को कर्त्ता बताया है। कुछ व्यक्ति पेट को दोष देते हैं, तो कुछ व्यक्ति भूख को कर्मों का कारण मानते हैं। इसी प्रकार कोई समाज को, तो कोई परिस्थितियों को पाप करानेवाला मानते हैं। कुछ-कुछ तो सीधा-सीधा ईश्वर को ही संसार के अच्छे बुरे सभी कर्मों का कर्त्ता मानते हैं।

वस्तुतः ये सभी मान्यताएँ अनुपयुक्त तथा यथार्थता से रहित हैं। प्रकृति तथा प्रकृति से बने सभी पदार्थ जड़ तथा इच्छा-प्रेरणा रहित होने से शरीर में कर्मों का कर्त्ता नहीं बन सकते। इस दृष्टि से तो एक शरीर में अनेक कर्त्ता हो जाएँगे और परस्पर विरोध भी उपस्थित होगा। अतः ऐसा नहीं माना जा सकता। यदि ऐसा माना जाये कि ईश्वर की इच्छा/आदेश/प्रेरणा से ही मनुष्य सब कर्मों को करता है, तो फिर संसार में जो कुछ भी अच्छा-बुरा हो रहा है, उसके लिए ईश्वर ही उत्तरदायी होगा। मनुष्य ऐसी स्थिति में ईश्वर के हाथ की कठपुतली ही बन जाएगा। ऐसी पराधीन स्थिति में कर्मों का फल जीव को क्यों मिले? जिसने आदेश दिया है, उसे ही मिले। यह अज्ञानी, स्वार्थी, दुष्ट व्यक्तियों की ही चालाकी है कि बुरे काम स्वयं करके फल से बचने के लिए उसे ईश्वर या शैतान के माथे मढ़ देते हैं।

यथार्थ स्थिति यह है कि जीव स्वयं इच्छा, प्रयत्न, ज्ञान आदि गुणों से युक्त एक चेतन तत्व है तथा वह एक स्वतन्त्र कर्त्ता है। मन से विचारे गये, वाणी से उच्चारित तथा शरीर से किये जा रहे सभी व्यवहार उसी की इच्छा प्रयत्न से होते हैं, वहीं इन सब कर्मों का कर्त्ता है।