प्रश्न -उपासना एक प्रकार का मानसिक कर्म है, तो फिर उपासना को कर्म से भिन्न क्यों माना गया है? वह तो कर्म के क्षेत्र में ही आ जाएगी।

उत्तर- उपासना का वास्तविक अर्थ ईश्वर के आनन्द में मग्न हो जाना, उसकी अनुभूति करना ही है। यह अनुभूति शरीर, मन-इन्द्रियों के माध्यम से नहीं होती, आत्मा सीधे ही अपने सामर्थ्य से ईश्वर के साथ समाधि के माध्यम से सम्बन्ध जोड़कर आनन्द की अनुभूति करता है। इसलिए यथार्थतः उपासना को मानसिक कर्म नहीं कह सकते। क्योंकि यह कर्म की परिभाषा वाले क्षेत्र में नहीं आता है। तो फिर शंका उठती है कि योगाभ्यासी साधक के द्वारा जो संध्या समय में जप, ध्यान, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना आदि मानसिक क्रियाएँ की जाती हैं, वह तो कर्म की ही श्रेणी में आ जायेगीं, फिर उन्हें क्यों उपासना कहा जाता है? इसका समाधान यह है कि ईश्वर के आनन्द में मग्न होने से पूर्व तक, जो भी क्रियाएँ की जाती हैं, वे सभी मानसिक कर्म की ही कोटि में आ जाएँगी, पुनरपि इन सभी मानसिक कर्म की क्रियाओं को, उपासना के साधन अष्टांग योग यम-नियमादि के अन्तर्गत आ जाने से गौण रूप से उपासना कह दिया जाता है। वास्तव में ये क्रियाएँ उपासना नहीं है।