अंध-विश्वास के पनपने के कारण
अंध-विश्वास के पनपने का आधारभूत कारण है, कारण कार्य सिद्धान्त का न जानना। कारण वो कहाता है, जिसके होने से कोई कार्य हो और जिसके न होने से वह कार्य न हो। इस परिभाषा के अनुसार किसी कार्य के कारण को जानने के लिए दो बातों का निश्चित ज्ञान होना आवश्यक है और निश्चित ज्ञान के लिए बहुत बार का प्रत्यक्ष आवश्यक है- एक, किसी कार्य का किसी विशेष वस्तु के संयोग से होना। दो, उसी कार्य का उसी वस्तु के संयोग के बगैर न होना। नौकरी, शादी आदि कार्यों के होने का कारण कभी भी किसी मन्दिर, व्यक्ति आदि का आशीर्वाद नहीं होता, बल्कि व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ ही कारण होता है। उस मन्दिर, व्यक्ति आदि का आशीर्वाद तभी नौकरी, शादी आदि का कारण माना जाना चाहिए, यदि, उस मन्दिर, व्यक्ति आदि के आशीर्वाद के बगैर नौकरी, शादी आदि न हो। अंध-श्रद्धा के वशीभूत होके हम मन्दिर, व्यक्ति आदि के आशीर्वाद के पश्चात हुई अपने कार्य की सिद्धि का कारण स्थान, व्यक्ति विशेष आदि के आशीर्वाद को ही समझने लगते हैं।
यदि, 100 लोग किसी मन्दिर आदि में अपने किसी कार्य की सिद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं, तो 50-60 लोगों के कार्य तो उनके पुरुषार्थ से सिद्ध हो ही जाते हैं। हर व्यक्ति अपने कार्य की सिद्धि के लिए कुछ तो पुरुषार्थ करता ही है। इसलिए, ऐसा कभी नहीं होता कि 100 के 100 लोगों के कार्य सिद्ध न हों। गणित का संभावना का नियम भी यहीं कहता है। कुछ बातें तुक्के से भी ठीक निकल जाती हैं। गणित के इस नियम को न मानना भी अंध-विश्वास की बढ़ोतरी का एक मुख्य कारण है।
एक आदत मनुष्य में स्वभावतः देखी जाती है कि हम मनुष्य किसी सुख को पाने के लिए कम से कम परिश्रम करना चाहते हैं। गलत बातों का प्रचार करने वाले मनुष्य के इसी स्वभाव का फायदा उठाते हैं। अंध-विश्वास को फैलाने में हमारी इस आदत की बहुत बड़ी भूमिका है।
जब कोई बात हमसे सर्वथा असम्बन्धित होती है, तो किसी की उस विषय में कही गलत बात को भी हम अपनी मूक सहमति दे देते हैं। जैसे, जिस व्यक्ति ने आगरा जाना ही नहीं है, तो यदि कोई उसको आगरा जाने वाली ट्रेन्स की गलत जानकारी भी देता है, तो वह उसको मान लेता है। क्योंकि आज के लोगों में सामान्यतः परमात्मा, आत्मा और धर्म के बारे में जानने की इच्छा ही नहीं होती, इसलिए वे इन विषयों पर लोगों के सभी तरह के विचारों पर अपनी मूक सहमति दे देते हैं और बहुत से लोग इन सभ्य माने जाने वाले लोगों की मान्यताओं का अनुकरण करते हैं।
आज समाज में ठीक बात को बताने वाले नगण्य होने के कारण, सभी अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आवश्यक गलत बातों को प्रचारित व प्रसारित करने में लगे हुए हैं। आज विज्ञान की भौतिकी, रसायन आदि शाखाओं में किसी भी विषय पर विरोध नहीं है। इसके दो कारण हैं। एक, संसार की किसी भी बात को प्रत्यक्ष से जांचा जा सकता है, जबकि आत्मा, परमात्मा से सम्बन्धित बातों का केवल गिनती के लोग ही प्रत्यक्ष कर सकते हैं। दूसरा, विज्ञान की सभी शाखाओं को पढ़ाने वाले लोग सभी विषयों पर एकमत हैं। उनके एकमत होने से उनके शिष्यों में भी संशयरहित एकरूपता होती है, जैसे गणित पढ़ाने वाला व्यक्ति चाहे रूस, जापान चीन आदि देशों का हो, उसके गणित के नियम एक जैसे होते हैं, परन्तु अध्यात्म पढ़ाने वालों के अध्यात्म सम्बन्धी नियम भिन्न भिन्न होते हैं।
किसी वस्तु की ठीक-ठीक जानकारी ईश्वर के संविधान वेद से ही हो सकती है। यदि, पांच लोग किसी विषय पर भिन्न-भिन्न मान्यताएँ रख रहे हैं और सभी कहते हैं कि उनकी मान्यता ही सही है, तो पैमाना तो यह है कि जिसकी बात वेद सम्मत हो, उसकी बात सही व अन्यों की गलत। परन्तु, आज के दौर में वेदों को जानने वाले लोग बहुत ही कम हैं। ऐसे में किसी को ठीक-ठीक ज्ञान होने की सम्भावना बहुत कम है। वेदों के संशयरहित ज्ञान को प्रचारित व प्रसारित करने में बहुत बड़ी बाधा व्यक्तियों की जिद व अभिमान है। परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण सामान्य व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्ष से नहीं जाँचा जा सकता। इसलिए भी इसकी स्वीकार्यता बहुत कम है। लोगों में आत्मा, परमात्मा और धर्म से सम्बन्धित बातों का मौलिक ज्ञान ना के बराबर है, इसलिए भी अवैदिक बातों के प्रसार को रोकना कठिन है। उदाहरण, जादू के खेल में जादूगर को हवा में से किसी चीज़ को पैदा करते हुए, मरे हुए प्राणी को जीवित करते हुए देखने पर भी दर्शक उन बातों को सत्य नहीं मानता व समझता है कि इन खेलों में जादूगर की कोई चालाकी है। वह ऐसा इसलिए सोच पाता है, क्योंकि उसे निश्चयात्मक ज्ञान है कि अभाव से भाव की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती, हर वस्तु के निर्माण में कच्चा माल चाहिए होता है, मरे हुए प्राणी में आत्मा कभी भी नहीं आती आदि आदि।
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